लेखकीय
त्रयकथा-संस्करण तीन "देवों की अमरता का रहस्य" के बखान में।
..कथा-कथित, पुस्तकीय परिकल्पना के माध्यम से, ..लेखक, केवल यह, दर्शाने तथैव सिद्ध करने की, कोशिश में, व अन्यत्र क्रमिक घटनाओं, कृत्य, तथा छायांकन के, अवमूलन उपरांत, धरती पर इंसानियत में, देवों के प्रचलन की प्रमुखता, देवाधि कर्म प्रधानता, व उनकी प्रमुखताओं की, अनेकों प्रतिभूतियां प्रस्तुत करता है, धरती पर देवों के, आवा-गमन, व आवा-गमन के, उत्पन्न कारकों को, उदाहरणार्थ अनेकों चित्रांकों में, दर्शित भी, करता है, ..देवों की विविधता, शौर्य, पुरुषत्व तथा उनकी वंशानुवृद्धि व वंशावली का भी जिक्र, उपन्यास के, कई खंड-प्रतियों में, दर्ज किया गया है।
..लेखक, देवों की, इंसानी इस धरा पर, उत्पत्ति के साथ-साथ, उनकी दैनिक-चर्या, सभ्यता, व चाल-चलन की, आधुनिकता का भी, प्रपंच बहुताया में, वर्णित करता है, अन्यत्र कई विषम दशा-दिशा, व पारिस्थितिकी अंतरों में, उनकी महिमा का विखंडन, तथा उनकी गुणवत्ता में, ..उन्हें, अद्वितीय आयामी सभ्यता के, सर्वोत्तम जीवन होने का, प्रख्यान भी, अनेकों विभक्तियों, क्रमिक, तार्किक, योजनात्मक व सुबद्ध तरीके से, उल्लेख करता है।
..लेखक, अपने कथकिय भाव में, उजागर करने की, कोशिश करता है की, देवतागण भी, अलग अलग आयामों से, आए बहु-ग्रहीय सभ्यता के, सर्वोत्तम जीव हुआ करते थे, त्रय-कथानक के, तृतीय खंड "देवों की अमरता का रहस्य!" के माध्यम से, लेखकीय तमाम पृष्ठभूमि की, गणमानकिय समझ व पारिस्थितिकी दशाओं में, यह भी दर्ज करता है की, एकल और, खष्ट-आयामी देवों की, प्रभुता और महत्ता, इस आधुनिक इन्सानियत की, कही जाने वाली धरती पर, अधिकोचर रही, ..उनकी नजर इस, जीवनदेय व जीवों के, अभिलाक्षणिक लक्षण की दशाओं में, तैर रही, धरती पर, कोटि-योजन दैव्य-वर्षा पूर्व ही, पड़ गयी थी, जब धरती पर, जीवों का, उत्थान भी, नहीं हुआ था।
उन्होंने ही, इस धरती को, जीवन हेतु बनाया, जीवन उत्पत्ति से लेकर, उनमें ऊर्जा परिवर्तन, व आधुनिक इन्सानियत तक की, छायांकन का संपूर्ण कथावतरण में, निहित है, हांलाकि, पुस्तकीय परिकल्पना के, मूलभूत आधार-तथ्यों का, समावेश प्रदर्शित करता है, जोकि, अलग-अलग सभ्यता वाले, अन्यत्र कई दूसरे ग्रहीय देवों का, अलग अलग समयांतराल में, इंसानी भूलोक पर, आना जाना रहा, ..जिनमें से कई दैव्य-कुनबों में, जीवन-निर्माणक ऊर्जा का, सम्पूर्ण ज्ञान, और कला निधानता, व निपुणता में, इतने कुशाग्र थे की, वे स्वतः के जीवन निर्माणक ऊर्जा, या ज्ञान ऊर्जा में, स्वतः से ही, कई तब्दीलियां कर सकते थे, ..उनमें से कई, मूर्धन्य सभ्यताएं, ऐसी भी रहीं की वे, एकल-ब्रम्हांड निर्माणक-औधोगिक यन्त्र के, मालिक भी हुआ करते थे, ..परन्तु वे भी, किसी विशिष्ट खोज में थे, ..जो प्रमुख रहस्यपद है।
उपन्यास की मध्यस्थता से, कुछ देव कालांतर में, आयी सभ्यताएं, जिन्होंने इंसानी प्रमुख-पुरखों के समक्ष, दूसरे ग्रहों पर, जीवन के, बीज-बोये, और साथ ही, स्वतः के भी, जीवन-ऊर्जा को, कोटिक-खण्डों में, विभाजित कर, स्थानांतरित किया था, जिससे जानकारियों का समावेश, अगर्णीय, इकाइयों तक, हो सके, वे इतने सक्षम थे की, प्रकाश कण के, कोटिक निम्नतम इकाइयों में, ज्ञान ऊर्जा का, समावेश कर, जीवन तक परिवर्तित करने की, सम्पूर्ण विधि, का विस्तृत ज्ञान उनमे कूट कूट कर भरा हुआ था, जिसका लेखक ने, सुनियोजित, क्रमबद्ध, प्रायोगिक एवं तार्किक, तथ्यों की, पेशी की गयी है।
..धरती पर आए, सबसे उन्नत, 'एकल आयामी' सभ्यता के लोग, जो केवल, प्रतिबिम्ब के, विपरीतार्थक प्रकाश के, दीप्ती में, चलायमान थे, जबकि उसी सभ्यता की, दूसरी प्रजाति जो, अंधकार की, दीप्ती की, कोटिक निम्नतम इकाई, के समवेश में थे, उनका अपना स्वतः का उलटा ज्ञान-ऊर्जा, व जीवन परिवर्तित ऊर्जा विषम, विपरीत तथा विभिन्न चलन में, कार्य कुशल थी, वे दोनों ही, प्रजातियां एक पटल पर, समानता से, कृत्य नहीं किया करते थे, वे सदैव ही, एक दूसरे के, विपरीत प्रकृति, व एक दूसरे के भक्षक भी थे।
..परन्तु, विभिन्न पारिस्थितिकी विषमताओं, और चक्छु-अक्षरीयों की, नियमावली के अनुसार, इन्हीं दो, सभ्यताओं के, टकराव व समावेश से, एक विशालतम ब्रम्हांड का, निर्माण होता है, जहां सृष्टि, काले धुंध भवर, और चहु-दिशा फैलाव करते हुए, अनेकों ब्रम्हांड को, निगल कर, दूसरे सिरे पर, अनेकों ब्रम्हांड के, निर्माणक धूरि पर समानता...